Saturday, December 18, 2010

पर्यावरण बनाम विकास

घोर प्रदूषण घेर में, संस्कृत और समाज
जल थल नभ में छा गया ,घोर प्रदूषण राज़
जल ज़मीन जंगल जले ,फोटे जाते क़ी क़ी
उद्योगों क़ी जम रही ,बड़े घरों में साख jal
जल ज़मीन जंगल जुड़े ,जिन लोगों के साथ
घोर प्रदूषण मार से ,ठोंके अपना माथ
डिज़िटल तकनीकें सभी ,जपती जैसे मन्त्र
निष्क्रिय होने पर बुने ,सभी विषैले तंत्र
सकल सूचना तंत्र का ,तन मन झेले भार
मनोरोग की जड़ों से ,जोड़े झटपट तार
धरती माँ को चद रहा ,जैसे जैसे ताप
जनगण मन का बढ़ रहा ,बैसे ही अनुताप
धरती माँ के खनन का ,पनप रहा उद्ध्योग
घोर प्रदूषण को मिला ,जोड़ गुना का योग
सागर तट को पाटना ,जन संख्या की बाढ़
बाढ़ प्रलय तूफ़ान को ,बिन मागीं है आड़
वन उपवन रकबा घटा ,बारिश को अभिशाप
सागर से लाई हवा,धुल चाटती भाप
चाँद ध्रुवों पर चल रहे, जितने भी अभियान
हाथों को ना काम हो ,खाने को ना कौर
क्यों ना उगले आग फिर ,अपराधों का दौर
हर विकास की योजना ,बन जाए जब कंस
मौज उड़ाते काग सब ,धुल चाटते हंस
[भोपाल:१८.८२.१०]