Saturday, May 9, 2009

ग्रीष्म ऋतु अभिशाप


ग्रीष्म ऋतु ने दे दिया ,मौसम को अभिशाप
उछल कूद पारा करे ,नाप न पाता ताप
ग्रीष्म ऋतु की तपन ने ,मचा रखा उत्पात
डर के मारे छाँव भी,भूल गई औकात

तन तप तप कर छाँव का,सचमुच हुआ लकीर

झाँक झाँक दुरवीन से पागल हुआ कबीर

आठ आठ आंसू बहा ,छाँव न पाये चैन

खारा सागर चुक गया ,बिबस बिचारे नैन

बैठा राही छाँव से ,पुँछ रहा है राह

बेबस बेचारी हुई ,रोक न पाती आह

मन छाया का हो गया,साधू संत फ़कीर

परहित करने के लिए ,रहती सदा अधीर

बरगद की छाया घनी ,मजा लूटिये मित्र

धूपहवा मिल रच रहे ,मर्ग तृष्णा के चित्र

मौसम पत्थर दिल हुआ ,उगल रहा अंगार

जन जीवन बेबस हुआ ,मुंह बाए संहार

टीn

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