महुआ जामुन आम का ,बौराए जब बौर
हसीं खुशी से चेत में , सब के मुह में कौर
सरसों गेहूं चना से ,मुस्काये जब खेत
होरी को बैशाख दे ,नवजीवन संकेत
रो रोम से जब बहे ,नदी पसीना धार
जेठ दुपहरी तब करे ,वार वार ,बस वार
कजरारे घन सघन हों ,बरसें कहें अषाढ़
दादुर मोर किसान के ,घर खुशियों की बाढ़
सावन की रिमझिम भली ,भाइ बहन त्यौहार
दार दार झूला परे,पेंगों का उपहार
थामे ण भादों में अरे ,वर्षा की रफ़्तार
छानी छप्पर सिसकते ,जन जीवन लाचार
पित्रपक्ष पक्ष की धूम हो ,घर घर आय बुखार
मच्छर झींगुर काग का, स्वागत करे क्वार
अन्धकार को बिदा दें,दीवाली के दीप
राम आगमन अबध में कातिक लिखता टीप
अगहन अगवानी करे ,जाने गौना रीति
राधा सी नाचने लगे ,भूली बिसरी प्रीति
पूस मॉस में पेलती,क्रूर ठण्ड जब दंड
तब आलाव करने लगे ,कीर्तन भजन अखंड
माघ मास पाला पड़े ,हो किसान हैरान
फसलें ढोतीं है सदा ,अनचाहा नुक्सान
मन ब्र्न्दाबन रंग रागे ,बरसाने की फाग
गागुन वन वागन नाचे ,जले पलाशन आग
[भोपाल :०७.१०.ओ६]
Sunday, June 21, 2009
Saturday, June 20, 2009
सन्नाटे में गाँव
बाग़ बगीचे गाँव में ,खो बैठे पहचान
आम जाम जामुन हुए ,बाज़ारों की शान
पीपल बरगद नीम ने ,खींच लिए हैं हाथ
हमने ही जबसे दिया ,नीलामी का साथ
ताल तलैया नहर के ,बदल गए हैं पाट
अन्धकार में रौशनी, लिए गाँव में हाट
गायब सब पगदंदियाँ ,खा चकबंदी मार
सड़कें जोडें गाँव के,अब शहरों से तार
सड़क गाँव को ले गई, फुटपाथों की छाँव
संनते में भटकते ,छानी छप्पर गाँव
अत पात पीले झरे ,खड़े पेड़ सब ठूंठ
जगर मगर सब शहर की ,गयी गाँव से रूठ
ठिठुर ठिठुर ठंडा हुआ ,होरी धनिया गाँव
रातरात भर तापता ,जान बचाय अलाव
घर आँगन बरसात में ,कीचड दलदल गाँव
पछताते नर नारियाँ,जामे रोग के पाँव
जमींदार खोखल हुए ,बेंचे खाएं खेत
धन दौलत इज्ज़त हुई,ज्यों मुठ्ठी में रेत
जिनके घर में थी नहीं ,कौडी भून्जीं भांग
हाथ पसारे गाँव की ,पूरी करते मांग
भूमिहीन हैं गाँव में ,ऋण से लदे किसान
दानों को मुहताज है ,संकट में ईमान
बांग न मुर्गों की मिले ,बन बागन में मोर
जकडे सारे गाँव को ,बाघ भेड़िया शेर
घर आँगन खलियान का ,बदल गया भूगोल
गली गली में डोलता ,राजनीति भूडोल
टॉप तमंचा गोलियाँ ,घर घर चौकीदार
पकड़ फिरौती मांग में ,शामिल रिश्तेदार
शाम ढले कपने लगे ,थर थर सारा गाँव
द्वार देहरी में बधें,नर नारी के पाँव
कहाँ न जाने खो गए ,रेशम से सम्बन्ध
खान पान अनुराग के ,भंग हुए अनुबंध
[भोपाल:२८.०१.०५]
आम जाम जामुन हुए ,बाज़ारों की शान
पीपल बरगद नीम ने ,खींच लिए हैं हाथ
हमने ही जबसे दिया ,नीलामी का साथ
ताल तलैया नहर के ,बदल गए हैं पाट
अन्धकार में रौशनी, लिए गाँव में हाट
गायब सब पगदंदियाँ ,खा चकबंदी मार
सड़कें जोडें गाँव के,अब शहरों से तार
सड़क गाँव को ले गई, फुटपाथों की छाँव
संनते में भटकते ,छानी छप्पर गाँव
अत पात पीले झरे ,खड़े पेड़ सब ठूंठ
जगर मगर सब शहर की ,गयी गाँव से रूठ
ठिठुर ठिठुर ठंडा हुआ ,होरी धनिया गाँव
रातरात भर तापता ,जान बचाय अलाव
घर आँगन बरसात में ,कीचड दलदल गाँव
पछताते नर नारियाँ,जामे रोग के पाँव
जमींदार खोखल हुए ,बेंचे खाएं खेत
धन दौलत इज्ज़त हुई,ज्यों मुठ्ठी में रेत
जिनके घर में थी नहीं ,कौडी भून्जीं भांग
हाथ पसारे गाँव की ,पूरी करते मांग
भूमिहीन हैं गाँव में ,ऋण से लदे किसान
दानों को मुहताज है ,संकट में ईमान
बांग न मुर्गों की मिले ,बन बागन में मोर
जकडे सारे गाँव को ,बाघ भेड़िया शेर
घर आँगन खलियान का ,बदल गया भूगोल
गली गली में डोलता ,राजनीति भूडोल
टॉप तमंचा गोलियाँ ,घर घर चौकीदार
पकड़ फिरौती मांग में ,शामिल रिश्तेदार
शाम ढले कपने लगे ,थर थर सारा गाँव
द्वार देहरी में बधें,नर नारी के पाँव
कहाँ न जाने खो गए ,रेशम से सम्बन्ध
खान पान अनुराग के ,भंग हुए अनुबंध
[भोपाल:२८.०१.०५]
Saturday, May 9, 2009
ग्रीष्म ऋतु अभिशाप
ग्रीष्म ऋतु ने दे दिया ,मौसम को अभिशाप
उछल कूद पारा करे ,नाप न पाता ताप
ग्रीष्म ऋतु की तपन ने ,मचा रखा उत्पात
डर के मारे छाँव भी,भूल गई औकात
उछल कूद पारा करे ,नाप न पाता ताप
ग्रीष्म ऋतु की तपन ने ,मचा रखा उत्पात
डर के मारे छाँव भी,भूल गई औकात
तन तप तप कर छाँव का,सचमुच हुआ लकीर
झाँक झाँक दुरवीन से पागल हुआ कबीर
आठ आठ आंसू बहा ,छाँव न पाये चैन
खारा सागर चुक गया ,बिबस बिचारे नैन
बैठा राही छाँव से ,पुँछ रहा है राह
बेबस बेचारी हुई ,रोक न पाती आह
मन छाया का हो गया,साधू संत फ़कीर
परहित करने के लिए ,रहती सदा अधीर
बरगद की छाया घनी ,मजा लूटिये मित्र
धूपहवा मिल रच रहे ,मर्ग तृष्णा के चित्र
मौसम पत्थर दिल हुआ ,उगल रहा अंगार
जन जीवन बेबस हुआ ,मुंह बाए संहार
टीn
Monday, April 27, 2009
आनंद के दोहे
बहो में हम सब बधे,रात हुई कब भोर
घर से बाहर पग धरें ,मन घर में रह जाय
फाइल अल्बम सी लगे ,काम न बिल्कुल भाय
स्वेटर हम बुनते रहे ,गर्म प्यार का ऊन
उटकमंड मंसूरिया ,घूमे देहरादून
प्यास बुझाए ना बुझे ,मरुथल जैसी प्यास
स्वर्गिक सुख में डूबते ,खोते होस हवास
घर ग्रहस्थी बढ़ती गयी ,खर्चों का सैलाव
हुईं सयानी बेटियाँ , दान मांग प्रस्ताव
जरा सौंप खुश हो रहा भूख प्यास औ' हार
जैसे सागर शांत हो ,गुजर जाय ज्यों जुवार
भोगे सपनों के सभी टूट गए संदर्भ
रथ कैसे आगे बढे ,थके थके गन्धर्व
सभी कथानक हो गए ,धीरे धीरे मौन
बूढी -टूटी नाव से ,हाथ मिलाये कौन
जितने अल्प बिराम थे ,हो गए पूर्ण विराम
भूख थमी करने लागी ,सुबह शाम आराम
लाल लाल काले हुए ,कमल सरीखे गाल
अनगिनती झुर्री भरा ,पछताता है भाल
[प्रकाशित प्रेस्मेनभोपाल :२१.०३ .०९ प्रष्ठ१३.]
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