Wednesday, December 28, 2011

पर्यावरण दिवस त्यौहार

तापमान का उछालना , ग्रीन्होल संबाद
ग्लोबल वार्मिंग कर रहे ,प्रदूषण अनुवाद
कचरा उत्पादन बना ,बड़ा भयंकर रोग
आज जरूरत है बड़ी ,समझें इसको लोग
प्रदूषण भूगोल का ,सिमटे जब आकार
ग्लोबलवार्मिंग पर कटें,सपना हो साकार
जल थल वातावारण में ,घुला जहर ही जहर
बदले तेवर ताप के ,उगल रहा है कहर
अगले डेढ़ दशक में ,ग्लेशियर अवशेष
बड़े शहर कुछ द्वीप भी ,हों इतिहास विशेष
जनसंख्या की बाढ़ से ,घटते जंगल जीव
मगर खोखली हो रही ,सुख सपनो की नीव
लेता है अगडाइयां, जल थल का इतिहासनए नए भूगोल का, नकशा होगा ख़ासप्रदूषण भूगोल का ,सिमटे यदि आकारग्लोबल वार्मिंग पर कटें ,सपनें हों साकारअतिरिक्त ऊर्जा स्रोत के ,यदि हम जोड़ें योगप्रदूषण की कोख के ,दूर भगेगें रोंग
अक्षय ऊर्जा श्रोत के ,जल सूरज हैं वायु
उनके खर्चे नपे तुले ,घटे प्रदूषण आयु
हो विकास जब हर तरफ ,बिना प्रदूषण मार
सुख वैभव का राज़ हो ,हराभरा संसार
दुनिया में अब तंत्र के ,खड़े हो गए काननयी नयी नजत योजना ,खीचें सबका ध्यानजन गण मन में जब जगे ,जागरूकता आगपर्यावरण विनास का ,धुले सदा को दागपर्यावरण दिवस का ,हर दिन हो त्योहार
मौसम का बदले तभी ,जग चाहा व्यवहार
[भरूच:०५.०६.२०१०]।

Sunday, December 18, 2011

mantriyal gungaan

          मांट्रियल गुणगान :आनन्द के दोहों में 

मांट्रियल की भव्यता ,मन- मोहक  मन -  मीत
कवि मन को करती विवश, गाओअभिनव गीत
मांट्रियल    सबसे    बड़ा ,क्यूबेक  का शहर
घनी बस्तियों के जमें  ,जहां अंगदी पैर
कहीं पुरानी बस्तियां ,कहीं आधुनिक  शहर
गगन चूमती चिमनियाँ ,उगल रहीं हैं ज़हर
छोटे छोटे घर कहीं ,बीच शहर से दूर
गगन चूमतीं बस्तियां ,करें उन्हें मजबूर
विध्द्या धन व्यापार का ,मांट्रियल है गाँव
नाम कमाने में कभी ,नहीं हारता     दाँव
ओलम्पिक टावर खडा ,अपना सीना तान
थकें नहीं यश गान में,दुनिया के मेहमान
पन्नों में इतिहास के ,मांट्रियल के काम
पग पग पर उनकें लिखें ,शिलालेख पर नाम
ईंट पत्थरों ने बुनें ,घर सड़कें बाज़ार
ईटनसेंटर मॉलमें ,मन चाहे उपहार
विज्ञान केंद्र में जब घुसो, दिखे डायनासोर
वैज्ञानिक जिनसे पढ़ें,जीव -जनम का भोर
साधन सब आवागमन ,खानपान सुखधाम
जिसको जैसा चाहिए ,उसको बैसा काम
गोरे गोरे तन वदन, सबको ह्बोश-हबास
सब दुनिया से आ बसे,फ्राँस देश के ख़ास
फ्रेंच फ्राँस की धरोहर ,मांट्रियल पहचान
सकल विश्व यह जानता,देता है सम्मान
दुनिया में ऐसे शहर ,गिनना है आसान
जिनका शाम सुवहदिवस,गाता है गुणगान
स्वर्ण अक्षरों में लिखा, मांट्रियल का नाम
बाँट रहा आनन्द धन ,सब जग को अविराम
[मांट्रियल -ग्रान्द्फल्स कर यात्रा :१७.१२.२०११]
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Tuesday, May 31, 2011

फूले फले पलाश

अमलतास हसने लगा ,सुन फागुन के फाग
टेसू वन में लग गई, बिना लगाये आग
जन गण मन खुश हो रहा ,गाता फागुन फाग
बुझे बुझाए ना बुझे,लगी पलाशन आग
हर ऋतु के तेवर अलग ,अलग अलग पहचान
मधुरितु आकर फूँकती , वन पलाश में प्राण
मन वृन्दावन रंग रगा ,बरसाने की फाग
लाल लालरंग में रंगें ,जब पलाश के पेड़
पता नहीं लगता कहाँ ,पत्ते दिए खदेड़
झर झर झर झरने लगें ,जब पलाश के फूल
लाल लाल तेवर तने,बन जाते हैं धुल
पिचकारी में रंग भरा ,होली का त्यौहार
दिया उधार पलाश ने ,दोनों हाथ पसार
सारा जग यह जानता ,तीन ढ़ाक के पात
उछल कूद बस कर सकें , तीन दिनों की बात
चार दिनों की चाँदनी ,फूलें फले पलाश
रूठे जब मधुमास तो ,होता खूब हताश
महुआ जामुन आम का ,बौराए जब बौर
वन में किंशुक फूल तब ,खिलते बन सिरमौर
जंगल में मंगल करे ,हँसे खिले जब मधुमास
पंख कल्पना को लगे ,जैसे खिलें पलाश
[भोपाल :३०.०५.२०११]









Sunday, February 6, 2011

वसंत का परिपत्र

लाख पतझड़ की क्रूरता ,हुआ वसंत उदास
आँखों में तिरने लगा ,समय समाज समास
आनन फानन कर दिया ,जारी फिर परिपत्र
सबने रेखांकित किया,सुभागमन नवसत्र
संवरे सजे वसंत ने ,किया विशद ऐलान
पतझर भौचक्का हुआ ,भगा छोड़ मैदान
तितली भौरों ने रचे , नए- नए संवाद
खिले अधखिले फूल का ,किया तुरत अनुवाद
कलियाँ मन हीं मन ,हंसीं होंगे पीले हाथ
जीवन पथ पर बढेंगे ,साथ साथ हाँ साथ
राधा बन नचने लगी ,गाये मीरा गीत
कोयल के मन में जगी ,प्रेमप्रीत नवनीत
खिले फूल बागन नचे ,लगी पलाशन आग
धरा गगन गाने लगा ,फाग फाग बस फाग
महकी सकल वसुंधरा ,पिघला जनगण ताप
दुख्दार्दों के धुल गए ,बचे खुचे संताप
यत्र तत्र सर्वत्र है ,चर्चा का सन्दर्भ
सजाधजा मधुमास ज्यों ,सचमुच में गंधर्व
जंगल में मंगल करे ,यह वसंत की रीति
विरहिन मन में उमगती ,परदेशी की प्रीति
सपने बनकर उड़ रहे ,जैसे उड़े वसंत
थाह न कोई पा सका ,पंडा मुल्ला संत
बरसाने के फाग का ,डंडा लिए वसंत
रंग गुलाल उड़ा रहा, ओर न छोर अनंत
फूल फूल को सूंघती ,बजा रही है ढोल
सबमें गंध सुगंध कहाँ ,हवा खोलती पोल
पीली पीली ओढ़नी , हरा घाघरा रंग
सरसों दुलहन रूप लख ,जग सारा है दंग
खेत बाबरे हो गए ,रहीं न फसलें बाँझ
तारे झिमिल जल उठे ,आई ज्यो ही साँझ
काना मटर के खेत में ,दमके जुगुनू फूल
फसल सुहागिन का कभी, गलत न हो अनुमान
पुलकित हर खलिहान हो ,पुलकित हिन्दुस्तान

[
रेलयात्रा;भोपाल विदिशा :३०.०१.२००७]






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